Kavya Katare : 14 वर्षीय उपन्यासकार

मध्य प्रदेश से तालुक रखने वाली मात्र 14 साल की काव्या कटारे [ Kavya Katare ]  एक सफल उपन्यासकार है. जो उम्र उपन्यास पढ़ना प्रारंभ करवाती है उस उम्र में उपन्यास लिख देना कम आश्चर्यजनक नहीं है. वैसे काव्या केवल उपन्यास ही नहीं लिखती है बल्कि कविताएँ भी लिखती है. प्रकृति को अपने उपन्यास का विषय बनाने वाली इस बालिका ने अनेकों कहानियां भी लिखी है. वे कहानियां अनेकों प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है.
धमाचौकड़ी (बाल कविता संग्रह) नाम की प्रकाशित कृति में Kavya Katare ने कविताओं के माध्यम से बचपन को उकेरा है. कक्षा 9वीं में अध्ययन कर रही काव्या बताती है- “लेखन की शुरूआत मेरे दादाजी के कारण हुई. दादाजी महेश कटारे सुगम जी एक स्थापित रचनाकार हैं. घर का माहौल भी साहित्यिक रहा जिसके कारण मुझमें साहित्यिक रुझान पैदा हुआ.”
अपने दादा के साथ
पिता प्रभात कटारे और माता सोनम कटारे की सुपुत्री काव्या अपने नाम के अनुसार ही काव्य जगत को अपने काव्य पुष्पों से सुरभित कर रही है. अपनी कहानियों में समाज की समस्याओं पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है. “काली लड़की” और “कन्यादान” जैसी कहानियों में स्त्री वर्ग की कठिनाइयों को उजागर किया है. उनकी पीड़ा को समाज के सामने लाने का साहस दिखाया है.

Kavya Katare की कविताओं के नमूने 

 

दीदी मुझ को डांट रही है 
दीदी मुझ को डांट रही है
मधुमख्खी सा काट रही है
झूठे बिस्कुट मुझको देती
और क्रीम खुद चाट रही है
अपनी जिद पूरी करवाने
मेरा पत्ता काट रही है
खाने की चीजों में हरदम
करती बंदर बांट रही है
उसकी बात जलेबी जैसी
मेरी बात सपाट रही है
◆◆●◆◆
भाई मेरा प्यारा प्यारा
भाई मेरा प्यारा प्यारा
जैसे सुंदर नदी किनारा
उसकी बात नहीं मानो तो
चढ़ जाता है उसका पारा
मुझे मारता रहता हरदम
फिर कहता दीदी ने मारा
जब जाती स्कूल सुबह मैें
फिरता रहता मारा मारा
◆◆●◆◆
हम जैसे वैसे अच्छे हैं 
तोता बोला तोती-तोती
अपनी भी इक दुनिया होती
घर होता दो कमरों वाला
सुंदर-सा रंग-रोगन वाला
बैठ चैन से उसमें खाते
हम इंसानों-सा सुख पाते
तो फिर कितना अच्छा होता
तोती बोली तोता-तोता
इंसानों-सा जो घर होता
इंसानों जैसे हो जाते
हम भी बेईमान हो जाते
हिंदू मुसलमान हो जाते हैं
आपस में ही लड़ते रहते
तू-तू मैं-मैं करते रहते
हम पक्षी सीधे-सच्चे हैं
हम जैसे-वैसे अच्छे हैं
Kavya Katare
अपनी पुस्तक के साथ काव्या

आशुतोष जी की नज़र में काव्या की किताब 

कथा-संग्रह “काली लड़की” में संकिलत कहािनयों को पढ़ते हुए चकित होता रहा, अब उन पर कुछ कहते हुए रोमांच से भर गया हूँ. सचमुच यह हिन्दी भाषा और हिन्दी कहानी के लिए गौरव का समय है. जब कहानियां सुनने की उम्र में बच्चे कहानी लिखने लगे. यूँ तो काव्या कटारे की  बहुमुखी प्रतिभा और रचनात्मकता से फेसबुक आदि सोशल साईट के दर्शक परिचित होंगे ही. अब वे अपनी कहािनयों की एक किताब “काली लड़की” लेकर आ रही है. ऐसे में इस किताब को, किताब की कहािनयों को और इन कहानियों के कहानीकार को देखकर बड़ा सुखद लग रहा हैं. थोड़ी हैरानी भी हो रही हैं. जिस उम्र में हम गिल्ली-डंडा खेलते थे और पतंग उड़ाते थे उस उम्र में काव्या हैं कि इतनी बेहतर कहानियाँ लिख रही है.

‘कन्यादान’, ‘काली लड़की’, ‘गोद’, ‘वो’, ‘चाय की प्याली’, ‘हक़’, ‘किस की तरह’, ‘चीखें’ और ‘वृत’ जैसी नौ छोटी-छोटी कहानियों की यह किताब अपने कथ्य, भाषा, शिल्प और ‘मैसेज’ के लिहाज से बड़ा असर छोड़ती है. कहानियों का प्लाट बिलकुल भिन्न है. हर कहानी अपने ‘ट्रीटमेंट’ में एकदम अलग और खास है. काव्या ने अपनी कहानियों में नैरेशन का भी अत्यंत प्रभावशाली प्रयोग किया है. जो उनकी उम्र को देखते हुए अदभुत लगता है. उनकी कहानियों में एक भरी-पूरी दुनिया है. माता-पिता के साथ अनिवार्यत: दादा-दादी, चाचा, बुआ भी हैं. संयुक्त परिवार के टूटने और ‘न्यूक्लियर फैमली’ के बहुचर्चित मुहावरे के बीच संयुक्त परिवार का यह चित्रण बहुत सुखद है. इन कहानियों को एक बच्ची की निगाह से देखी गयी दुनियां का अक्स भी कह सकते हैं.

“काली लड़की” पुस्तक की कथा वस्तु 

संग्रह की पहली कहानी ‘कन्यादान’ में बेटियों के प्रति उपेक्षा के भाव को मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है. बेटी पैदा होते ही उसे नदी में प्रवाहित करने और फिर एक संतानहीन व्यक्ति द्वारा उसे अपना लेने की कथा को काव्या ने अपने रचनात्मक हस्तक्षेप से प्रभावशाली बना दिया है. पूरी कहानी का वाचक एक नदी है. कहानी नदी के इस आत्म-परिचय से आरम्भ हुई है, ‘मैं हूँ पहाड़ पुत्री नदी. यही है मेरा परिचय और इतना ही मैं जानती हूँ खुद को. ना ही मुझे अपने जन्म की खबर है, ना ही अपनी उम्र की. पर मैं इतना जरुर जानती हूँ कि, ‘मैं सालों से बही जा रही हूँ’ इस वाक्य से शुरु करते हुए काव्या ने नदी के माध्यम एक तरह से सभ्यता समीक्षा प्रस्तुत की है. कहानी के अंत के साथ जैसे उन्होंने ‘कन्यादान’ शब्द का अर्थ विस्तार ही कर दिया है.

अपनी दादी, पिता, और माता सहित भाई – बहिन के साथ काव्या

‘काली लड़की’ कहानी के माध्यम से काव्य ने गोरे और काले रंग के प्रति सामाजिक पूर्वाग्रह पर तंज किया है. गोरे रंग को सुन्दरता का और काले रंग को बदसूरती का पर्याय मानने के पीछे कितनी हिंसा है, कितनी अमानवीयता है, इस तथ्य को यह कहानी बहुत मार्मिक और बेबाक ढंग से सामने लाती है. रंगभेद जनित इस हिंसा और अमानवीयता का काव्या ने बहुत सीधा और अचूक प्रतिरोध रचा है. दरअसल मनुष्य का चेहरा और चेहरे का रंग नहीं उसका आत्मविश्वास खूबसूरत होता है. कहानी की मुख्य पात्र अपने आत्मविश्वास से सुन्दरता के मानदंड को बदल देती है और यही कहानीकार का मकसद भी है. सौन्दर्य के इस व्यावहारिक दर्शन को अपनी कहानी में रचनात्मक ऊंचाई देने वाली काव्या अपनी लेखकीय प्रतिभा से हैरान कर देती है.

राजनारायण बोहरे जी लिखते हैं –

पिछले दिनों व्हाट्सएप के एक साहित्यिक  ग्रुप पर कहानीकार के बिना नाम के पोस्ट की गई कहानी “काली लड़की” पढ़कर  मुझ जैसे पढ़ाकू को अहसास हुआ कि इस कहानी में किसी परिपक्व सांवली लड़की ने अपनी व्यथा लिखी है। जिसमें कि उसको सांवले रंग के कारण, कभी मां की गोद ली हुई लड़की तो कभी बीमार लड़की होने के ताने सुनने पड़े। इस कहानी का अंत बड़ी समझदारी व सकारात्मकता के साथ किया गया है। बाद में पता लगा कि यह कहानी अबोध सी दिखती काव्या कटारे ने लिखी है, जो महज 13 साल की है। तो मैंने कहानी दोबारा पढ़ी और मैं दंग था।

डॉ. पद्मा शर्मा जी की समीक्षा 

कहते हैं पूत के पैर पालने में होते हैं लेकिन पुत्री के पैर जब घर में पड़ते हैं तो लक्ष्मी का वास हो जाता है। साहित्य प्रयत्न करके लिखी जाने वाली प्रक्रिया नहीं अपितु मन के संवेदित भावों को व्यक्त करने की कला है। जब हम आजकल के बच्चों को मोबाइल, कंप्यूटर, ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप, सोशल साइट्स और मोबाइल गेम में व्यस्त पाते हैं तो हमारी चिंता बड़ जाती है कि बच्चे पुस्तक नहीं पढ़ते हैं और साहित्य से उनका कोई सरोकार नहीं है, पर जब काव्या कटारे की लेखिनी से भिज्ञ होते हैं तो हम आश्वस्त हो जाते हैं कि अभी आने वाली पीढ़ी साहित्य से दूर नहीं है , अलग नहीं है।

काव्या का कहानी संग्रह “काली लड़की” में कुल दस कहानियाँ संकलित हैं जो समाज की विभिन्न समस्याओं पर आधारित हैं। काव्या की कहानियों में वर्तमान समस्याओं के साथ-साथ उनके समाधान भी प्रस्तुत किए गए हैं जो कि वर्तमान परिपक्व कहानियों से यह परंपरा विलीन होती जा रही है। काव्या की पहली कहानी कन्यादान पुत्र मोह में बेटी को मारने के लिए पिता द्वारा नदी में विसर्जन कर दिया जाता है लेकिन वही नदी संतान विहीन पिता को उस पुत्री को दान करके कन्यादान कर देती है। कहानी में नदी का मानवीकरण किया गया है। स्त्री के बिना जीवन अभिशप्त है। स्त्री के विभिन्न रूप जीवनयापन के अभिन्न अंग हैं।

भालचंद्र जोशी जी के भावपूर्ण विचार 

यह सुखद आश्चर्य है कि एक  किशोर उम्र की लेखिका के पास  समाज को देखने के लिए ऐसी दृष्टि है जो उसकी रचनात्मकता को कथा लेखन की ओर प्रेरित करती है। उसकी रचनात्मकता सामाजिक विसंगतियों से मुखातिब होने के लिए उकसाती है। इन रचनाओं की सार्थकता इस बात में नजर आती है कि वह लेखक की संवेदना का पाठकीय संवेदना के साथ एक युग्म बनाती है, जहाँ रचना के आंतरिक अर्थ खुलते हैं।
वरना होता तो यह है कि इस किशोर उम्र में परिवार के साथ तो एक सघन नाता बन जाता है लेकिन समाज को देखने – परखने का नाता नहीं बन पाता है और न अवसर मिलता है लेकिन इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि लेखिका के पास न सिर्फ समाज को करीब से देखने का अवसर था बल्कि उसे परखने की दृष्टि भी है। वह भूमंडलीकरण के उत्तर समय की विभीषिका से अपरिचित हो सकती है लेकिन समाज से उसका परिचय है। वह उसकी विडंबनाओं को भी समझ रही है इसीलिए इन कहानियों में सामाजिक संदर्भ भावनाओं के भीतर रूपाकार ग्रहण करते  हैं। एक प्रबल भावना सामाजिक विसंगतियों से संघर्ष के लिए आगे आती प्रतीत होती है। भली बात यह है कि भावना रचनात्मकता में अमूर्तन की तरफ नहीं जाती है बल्कि लोकहित की संकल्पना और निर्णय में यथार्थ के परिचय में विस्तार पाती है।

मनीष वैद्य जी की शुभकामनाएँ 

काव्या की भाषा और शैली बेहद सरल और सहज होने से कहानियाँ अपने कहन में पाठकों से सीधे जुड़ जाती हैं। कहानियाँ साधारण बात करते हुए आगे बढ़ती हैं और उनमें धीरे से कोई ट्विस्ट आ जाता है। कहानी ख़त्म हो जाती है पर उससे आगे वह पाठक के मन में चलने लगती है। फ़िलहाल काव्या को उसकी भावी लेखन यात्रा के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएँ…!
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